रविवार, जुलाई 24, 2011

दबंग भोजपुरिया



अरसे से अपने विशिष्ट किरदार के कारण भोजपुरी फिल्म इंडस्ट्री में दबंग के तौर पर चर्चित सुशील सिंह मूलत: वाराणसी के अकोढ़ा के एक जमींदार घराने से ताल्लुक रखते हैं। पिता डा. गुलाब सिंह जाने-माने चिकित्सक हैं और हर पिता की तरह उनकी भी तमन्ना बेटे को डाक्टर बनाने की रही होगी लेकिन आज यदि वह सुशील की सफलताओं को अपने चश्मे से देखते हैं तो उन्हें कतई निराशा नहीं होती। वह फख्र से कह सकते हैं कि यह जो परदे पर अलग छाप छोड़ता कलाकार दिख रहा है, वह दरअसल मेरा बेटा है।
बड़का भइया अखिलेश
भोजपुरी फिल्मों में खलनायक की भूमिकाएं करते हुए एक खास परिचय बन गए सुशील ने जब टीवी धारावाहिक भाग्यविधाता में पहले निगेटिव और फिर पाजीटिव रोल किया तो वह घर-घर में बड़का भइया अखिलेश के नाम से पहचाने जाने लगे। उनके चेहरे की भाव-भंगिमाओं में दूसरे कलाकारों की तरह कहीं कृत्रिमता नहीं झलकती। ऐसा लगता कि सामनेवाला इंसान निश्चित किरदार को जीने लगा है। धारावाहिक के मुख्य कलाकार से ज्यादा इस कलाकार की चर्चाएं आम हो गईं। सुशील को करियर के इस सफल मुकाम पर शायद अब पीछे देखने की जरूरत नहीं बल्कि वह अपने लिये फिल्मों के चयन व सोच में बदलाव के बारे में सोचने लगे हैं। तकरीबन 50 फिल्मों में विविध भूमिकाएं निभानेवाले इस कलाकार ने अब पाजीटिव रोल करने शुरू किए हैं। सफलता यहां भी हाथ लगने लगी है। भोजपुरी फिल्मों में ही नहीं हिन्दी फिल्मों में भी उन्हें काम मिला है और लगातार नए प्रस्ताव भी आ रहे हैं। निर्माणाधीन हिन्दी फिल्म मुंबभाई में वह ओमपुरी के साथ काम कर रहे हैं।
कन्यादान से शुरू हुआ सफऱ
वाराणसी शहर की शीलनगर कालोनी (महमूरगंज) में कभी रहते थे सुशील। केंद्रीय विद्यालय-डीएलडब्ल्यू में स्कूलिंग हुई और यूपी कॉलेज से उच्च शिक्षा हासिल की। अभिनय का प्रशिक्षण नहीं लिया लेकिन सुशील का मन जाने क्यों मुंबइया मनोरंजन जगत की तरफ आकर्षित होता रहा। मुंबई से परिवार का व्यावसायिक रिश्ता होने के नाते अक्सर वहां जाना होता। फिर वहां तक गए तो बगल में फिल्म सिटी तक पैर स्वत: बढ़ जाते। हालांकि कभी सोचा नहीं था कि फिल्म सिटी उन्हें अपना लेगी और जल्द ही उनका नाम लोगों की जुबान पर होगा। बकौल सुशील वह तो कॉलेज की कल्चरल एक्टविटीज में हिस्सा लेते थे लेकिन वह महज रुचि की बात थी। वर्ष 2003 में कन्यादान से फिल्मी सफर शुरू किया। एक दर्जन फिल्मों में निगेटिव रोल किए लेकिन लोगों की तालियां खूब मिलीं।
आहट ने दी कला संपन्नता की आहट
वर्ष 2001 की बात है। मुंबई फिल्म सिटी में यूं ही शूटिंग देखने पहुंचे थे सुशील। वहां धारावाहिक आहट की शूटिंग चल रही थी। उत्सुकतावश वहीं रुक गए। इस दौरान एक शाट बार-बार कट हो रहा था। शायद कोई कलाकार निर्देशक की अपेक्षाओं पर खरा नहीं उतर पा रहा था। जिस शाट के बारे में निर्देशक की झुंझलाहट थी, वह तो सुशील आसानी से कर सकते थे। सो, उन्होंने परेशान निर्देशक से भेंट की और पूरे भरोसे से कहा कि मैं यह रोल कर सकता हूं। एक दर्शक के इस आत्मविश्वास ने निर्देशक पर मिला-जुला असर डाला। उन्होंने झुंझलाते हुए सुशील को किरदार दे दिया। ...और यह क्या पहला ही शाट ओके हो गया। तब चार सौ पचास रुपये मिले थे सुशील को। इस पूरे वाकये ने सुशील की दिशा तय कर दी। आहट ने शायद उनकी कला संपन्नता की आहट दे दी।
मंडल का दंश और विचलित स्नातक मन
सुशील के साथ के लोग बताते हैं कि मंडल आयोग की सिफारिशें लागू होने के बाद उनका मन काफी विचलित हुआ था। इसी दौर में स्नातक की पढ़ाई पूरी की थी। उस परिस्थिति में तय कर लिया कि अब नौकरी नहीं करेंगे। क्या करेंगे? यह भी तय नहीं कर पाए थे। ऊहापोह की स्थिति में मुंबई का सफर तय किया और फिर उसी को अपनी कर्मस्थली बना ली। परदे पर आने के लिए संघर्ष के दौर में कई बार पारिवारिक उलाहने मिले। सुशील के दादाजी ठेठ बनारसी अंदाज में कहते कि का रे भड़ैती करबे। परिवारवालों को लगा था कि एक न एक दिन फिल्म का भूत उतरेगा और वह वापस घर चला आएगा। गोपालदास नीरज की कही बात का सुशील अब अक्सर उल्लेख करते हैं- मनुष्य का जीवन भाग्य है और कलाकार का सौभाग्य। दरअसल एक कलाकार अपने कला यात्रा में जाने कितनी भूमिकाएं जी लेता है।
नेचुरल एक्टिंग
सुशील सिंह के बारे में उनके साथी कलाकार कहते हैं कि वह नेचुरल एक्टर हैं। वह हर किरदार को बखूबी जीते हैं। कभी किसी शाट को लेकर उनके चेहरे पर परेशानी का भाव नहीं उभरता। जैसा वह सामान्य जीवन में हैं, वैसा ही वह अपने फिल्मी करियर में दिखाई पड़ते हैं।
बचपन से दबंग
स्कूल व कालेज में भी सुशील की छवि दबंग के तौर पर थी। वजह साफ रही कि वह जितने शैतान थे, उतने ही न्यायप्रिय भी। शैतानी बालसुलभ थी और न्यायप्रियता शायद पारिवारिक संस्कारों का प्रतिफल। सुशील के करीबी दोस्त और संप्रति हैदराबाद में व्यवसायरत अंजनी कुमार झा हंसते हुए कहते हैं कि कई बार सुशील के चक्कर में मैं पिटते-पिटते बचा। क्लास रूम में वह मेरे आगे बैठता था। एक बार टीचर के घुसते ही उसने सीटी बजा दी और झुक गया। सामने मैं दिखा और टीचर ने कान पकड़कर मुझे क्लास रूम से बाहर कर दिया। हालांकि वह पढऩे में मुझसे अव्वल नहीं था लेकिन नंबर ज्यादा आते। मुझे बार-बार लगता कि यह कुछ गणित करता है लेकिन जब हाईस्कूल और इंटर में कई विषयों में उसे विशेष योग्यता मिली तो मेरे भ्रम दूर हो गया। दरअसल सुशील जितनी देर भी पढ़ता पूरी तन्मयता से। स्मरण के मामले में आज भी उसका जवाब नहीं। अंजनी कहते हैं कि दस साल पहले यदि आपसे मुलाकात हुई हो तो भी सुशील याद रखता है। क्रिकेट का शौक था और यूपी कालेज में वह टीम का कप्तान भी था। इन सबके बीच रंगमंचीय प्रस्तुतियों में भी हिस्सा लेता। विद्यालय के वार्षिकोत्सव में प्रस्तुत हड़प्पा हाउस नाटक काफी चर्चित हुआ था।
अजीब आदतें
अंजनी कहते हैं कि सुशील की हरकतें कभी-कभी अजीब लगती थीं। मेरे घर ज्यादा आना-जाना था। एक बार घर से निकला और अकोढ़ा अपने गांव चला गया। बिना किसी को बताए। घरवाले बहुत परेशान हुए। पूरे शहर में खोज हुई और बाद में खुला कि वह गांव में है। बिना बताए क्यों चला गया? इस सवाल पर सुशील का कहना था कि सोचा खेत देख आऊं। एक बार अचानक याद आया कि गांव में क्रिकेट मैच है, सो बगैर जानकारी दिए निकल गया। बकौल अंजनी- सुशील को बाल कटवाने का बड़ा शौक था। हर आठ-दस दिन पर वह महमूरगंज में मोहम्मद चाचा की सैलून में पहुंच जाता। टोकने पर कहता कि जब मुश्ताक चाचा की कैंची सिर के ऊपर चलती है तो बड़ा मजा आता है।
जब हुई पिटाई
संपन्न पारिवारिक पृष्ठभूमि होने के कारण सुशील की आदतें शाहखर्चों जैसी थीं। एक बार स्कूल फीस का कुछ हिस्सा आइसक्रीम खाने में उड़ा दी। अब भय यह सता रहा था कि आखिर बाकी पैसों का क्या करें। घरवालों को पता चलेगा तो खूब पिटाई होगी। लिहाजा बचे पैसे घर की सीढिय़ों पर फेंक दिए। फिर भी बात खुल गई और जमकर धुलाई हुई। सुशील की मां इस बात को कहते समय अक्सर मुस्कुरा उठती हैं।
संवेदनशीलता और सादगी
सुशील में संवेदनशीलता बचपन से रही। अंजनी कहते हैं कि घर में मेरी अनुपस्थिति के दौरान वह मां द्वारा बताए गए किसी भी काम को बेझिझक करते। नौकर-चाकरों से भरा घर होने के बावजूद साइकिल पर वह मेरे घर का गेहूं खुद लादकर चक्की से पिसा लाते थे। किसी को मदद की जरूरत हुई तो कतई देर नहीं की। बोलना कम हाथ चलाना ज्यादा का सिद्धांत भी था उनका। अक्सर उनके हाथों किसी शोहदे को पिटते हुए देखते थे हम सभी।
हमने सोचा था आईएएस बनेगा
दोस्त अंजनी को अब भी लगता है कि सुशील की नेतृत्व क्षमता और तेज दिमाग उनके आईएएस बनने का रास्ता सुगम करते। फिर भी वह कलाकार के रूप में सफलता की ऊंचाइयां छू रहे हैं, यह संतोष की बात है।
परदे पर विलेन लेकिन घर में हीरो
सुशील सिंह की पत्नी माधवी कहती हैं कि वह भले छोटे-बड़े परदे पर विलेन का किरदार निभाते रहे हों लेकिन पारिवारिक जीवन में तो वह वास्तविक हीरो हैं। माधवी फैजाबाद (उत्तर प्रदेश) की रहनेवाली हैं और उनकी अरेंज मैरिज वर्ष 2003 में हुई। व्यावसायिक व्यस्तताओं के बावजूद वह परिवार के प्रति अपने दायित्व में कोताही नहीं बरतते। कभी टेंशन हुआ भी तो उसे बेहतर तालमेल के जरिए सुलझा लिया गया। माधवी कहती हैं कि वह मेरी पसंदीदा चीजों से मुझे मना लेते हैं और तब किसी प्रकार की ईगो का प्रश्न ही नहीं खड़ा होता। सुशील की सबसे बड़ी खासियत है उनका जमीन से जुड़ा होना। फिल्मों में भी जब स्क्रिप्ट भाता है तभी उस पर हां कहते हैं। पब्लिसिटी के लिए कभी गलत हथकंडे नहीं अपनाया। यह उनकी सच्चाई है।
- रजनीश त्रिपाठी
(दैनिक जागरण से साभार)

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