शनिवार, जनवरी 14, 2012

मालाबार हिल से नहीं बनायी जा सकती बिहार की गरीबी पर फिल्म


कैमरे की तीन में से एक अगली टांग कहीं भी अड़ा देने, डायस के सामने की कुर्सी हड़पने और तस्वीर उतारने की कंधा रगड़-मुंह नोंचू कचकच ने नामचीन एक्टर नसीरुद्दीन शाह को चिढ़ा (एरिटेट) दिया। वह अपनी फिल्म चालीस- चौरासी के प्रमोशन के सिलसिले में प्रोड्यूसर हृदय शेट्टी, अभिनेता अतुल कुलकर्णी, के. के. मेनन और रविकिशन के साथ मीडिया से बातचीत करने शुक्रवार को पटना आये थे। - मेहरबानी कीजिए.. आप काफी तस्वीरें ले चुके..। लगातार के हंगामे से उनकी बेचैनी अब आंखों से चिटकने लगी। रजत पट पर कलात्मक और गायी जा सकती (लिरिकल) धमक (लाउड अपीयरेंस) का जरिया बनतीं उनकी आंखों में अब नाराजगी थी। उन्होंने चेहरा भींचा, माथे पर बल पड़े, अंगुलियां तोड़ी, सिर खुजाया और इधर उधर देखते रहे ... फोटुआ.. फोटुआ.. अरे हट..पीछे.. चलता रहा। - फैसला करिये आप कब खामोश होंगे, तब हम बात करें। (शोर थोड़ा सा थमा).. - आप हमारे सिर पर चिल्ला रहे हैं और हमें बहुत खुशी हो रही है। यह आपकी मेहमाननवाजी है। आपने मुझे बिहार बुलाया है। दरअसल एक साथ कई-कई समानान्तर दुनिया में जीते नसीरुद्दीन शाह की भावधारा के सारे तार छितरा गये। वह हर्फ-हर्फ अपने भीतर की ही आग से रूबरू होते पटना तक आये थे। रास्ते में भी उन्होंने इनकलाबी शायर फैज अहमद फैज के गजल की कुछ लाइनें फिल्म चालीस- चौरासी में अपने सहयोगी एक्टर रविकिशन को सुनाई थीं। मिर्जा गालिब से फैज तक, मीडियाई हंगामे ने एक संजीदा शाम से चांदी की वह तर्ज नोंच दी जो आदमी बनाती है और उसे लोकतांत्रिक भी। नसीरुद्दीन साहब चिढ़ गये। रविकिशन ने बताया वह औधड़ हैं। फकीराना मिजाज है उनका। मूड और जनून के इन्हीं घटकों से बनता है हालीवुड- बालीवुड दोनों में बराबर मशहूर नसीरुद्दीन शाह। एक बेमिसाल एक्टर। -इधर आपकी फिल्में..? (सवाल पूरा नहीं हुआ.) - जिस फिल्म को मेरा दिल चाहे, लगे कि फिल्म करने में मजा आयेगा, मेरे लिए यही अहम है। फिल्म कितनी चलेगी, क्या बिजनेस करेगी, कितनी कमाई होगी मेरे लिए ये बातें मायने नहीं रखतीं। इधर आपने युवा अभिनेताओं के साथ ज्यादा फिल्में की हैं, संवाद बराबर बन जाता है न? - नौजवानों के साथ काम करके खुद को भी ऊर्जान्वित महसूस करता हूं। उनका साथ रेज्यूनिएट ( फिर नयेपन ) करता है। मैं इनके काम से मुतास्सिर हूं। - मैसेज के मायनों और संदर्भो में फिल्मों का आपका चयन कुछ नान कमिटेड हुआ है? - हर फिल्म मैसेज के लिए नहीं होती। दबंग कौन मैसेज देती है? हर फिल्म संजीदा नहीं होती। तकलीफ तो तब होती है जब देखता हूं कि उन्हें जिसे आप खास फिल्म कहते हैं, उनमें से ज्यादातर की कहानी कहीं न कहीं से उड़ाई होती है। नकल होती हैं वे किसी बाहर की फिल्म की। -तो जैसा कि डर्टी पिक्चर में विद्या बालन का संवाद भी है फिल्में केवल इंटरटेनमेंट, इंटरटेनमेंट और इंटरटेनमेंट के लिए होती हैं? - यह विद्या बालन से पूछिये। - क्या डर्टी फिक्चर में काम कर लेने के बाद यह नहीं कहा जा सकता कि आपने अश्लीलता उकसायी? - नहीं। - आपने स्पर्श, आक्रोश, पार जैसी फिल्मों से दूरी बना ली। कामर्शियल फिल्मों में आपकी लगातार दखल के क्या मंसूबे हैं? - मैं अब भी उस तरह की फिल्में कर रहा हूं। लेकिन, यह भी सच है कि यह दौर मुंबई के मालाबार हिल पर रहते हुए बिहार की गरीबी पर फिल्म बनाने का नहीं है। मैं जब कामर्शियल फिल्मों के लिए काम कर रहा था तब भी कला फिल्मों के लिए मेरा लगाव छीज नहीं गया था। अब कला और कामर्शियल फिल्मों की दूरी कम हुई है। अब कई नये लोग फिल्मों को लेकर ज्यादा वास्तविक धरातल पर आये हैं। वे उन चीजों को लेकर फिल्म बना रहे हैं जिनका लोगों की जिन्दगी से वास्ता पड़ता है। कर्मा में दिलीप साहब या ऐसे ही कुछ बड़े नामों के साथ काम करते हुए कैसा लगा? - देखिये ऐक्टिंग साथ- साथ होती है, किसी के खिलाफ नहीं। यह कुश्ती का मैदान नहीं है। आप की भी यही परम्परागत मीडियाई सोच होगी कि फलां- फलां के सामने नहीं टिका या फलां को फलां ने खा लिया, मैं नहीं सोचता था। कोई किसी के साथ काम करे, सब एक दूसरे को पूरा करते हैं। मैंने कहा न कि एक्टिंग साथ- साथ होती है। - यहां का थियेटर बदहाल है। कोई जगह नहीं है। एक प्रेमचंद रंगशाला.. - केवल थियेटर हाल बन जाने से यह मसला हल होने वाला नहीं है। आप थियेटर के भरोसे न बैठे रहिये। थियेटर कहीं भी हो सकता है। आपमें कितनी आग है इस पर निर्भर करता है थियेटर का जिन्दा रहना। थियेटर का मतलब है एक एक्टर, एक दर्शक और बराबर का संवाद। यह कायम रहेगा तो थियेटर चलता रहेगा।

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