शुक्रवार, अप्रैल 30, 2010

आज भारतीय सिनेमा के जनक दादा साहेब फाल्के की जयंती है.


“दादा साहेब फाल्के युगपुरुष थे, भारतीय फ़िल्म उद्योग की नींव उन्होंने ही रखी. इस बात का उन्हें नाज़ था....
...पर जब मेरे नानाजी का देहांत हुआ था तो उनके गृहनगर नासिक के सारे सिनेमाघर चालू रहे, किसी ने एक शो तक बंद नहीं किया था. उनकी बेटी और पत्नी बहुत दुखी हुई थी कि ऐसी कैसी दुनिया है जो इतनी जल्दी भूल गई.हालात इतने बिगड़ गए थे कि उनके बच्चों को फ़िल्मों से नफ़रत हो गई थी. मुझे लगता है कि मेरे नाना की कद्र नहीं हुई.आपको लगता है उन्हें वो सम्मान मिला?.”
ये सवाल है ऊषा पाटनकर का है जो दादा साहेब फाल्के की नातिन हैं। तीस अप्रैल को दादा साहिब फाल्के का जन्मदिवस है, जिन्होंने 1913 में भारत की पहली कथा फ़िल्म राजा हरिश्चंद्र बनाई.

आज की पीढ़ी के लिए धुंडिराज गोविंद फाल्के या दादा साहेब की पहचान शायद हर साल मिलने वाले पुरस्कार तक ही सीमित होकर रह गई है. इस युगपुरुष को जानने-समझने की कोशिश और उनसे जुड़े सवालों की तलाश हमें उनके परिवार तक ले गई. लेकिन उनके जवाब हमारे सामने कई और सवाल छोड़ गए.
दादा साहेब की सबसे बड़ी नातिन ऊषा पाटनकर ही एकमात्र ऐसी सदस्य जीवित हैं जो फ़ाल्के जी के साथ रही हैं, उनके साथ वक़्त बिताया है.
घर के बर्तन तक बेचे
ऊषा बचपन में वो तमाम किस्से सुनकर बड़ी हुई कि कैसे उनके नाना ने सिनेमा में बुलंदियाँ हासिल कीं। लेकिन जो हक़ीकत उन्होंने अपने सामने देखी वो कुछ और ही थी. अपनी यादों को टटोलते हुए वे कहती हैं, “ये वो दौर था जब दादा साहेब बूढ़े हो चुके थे, उनकी याददाश्त चली गई थी और काफ़ी बीमार थे. पर जब मैं उन्हें दवा देने आती तो वे मुझे अपने पास बिठा लेते और बताते कि अब उन्हें कौन सी फ़िल्म बनानी है."
वे बताती हैं,"वे पूरी भाव-भंगिमा के साथ मुझे ऐक्शन करके दिखाते कि ये सीन कैसे फ़िल्माया जा सकता है और बताते कि ऐसा करेंगे तो सीन अच्छा दिखेगा. अंतिम दिनों में नानाजी की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी, लेकिन तब भी दादा साहेब के दिमाग़ में सिनेमा, प्रोजेक्टर की बातें चलती रहती थीं.”
ऊषा का कहना है कि दादा साहेब का जीवन जितना सरल था उतना ही जटिल और विरोधाभासी भी.
अपनी नानी और माँ से सुने किस्से वे बड़े चाव से सुनाती हैं। वे बताती हैं, "दादा साहेब की बेटी यानी मेरी माँ ने वो समय देखा था जब दादा साहेब का करियर पूरी रवानी में था. बचपन में माँ के कपड़े पेरिस की बहुत मशहूर लॉंडरी से धुल कर आते थे मानो वो कोई राजकन्या हो. इतनी कमाई होती थी कि पैसे की गड्डियाँ बैलगाड़ी में भर-भर के लाई जाती थीं." लेकिन फिर वक़्त ने करवट बदली और परिवार की हालत इतनी खराब हो गई कि दादा साहेब फाल्के की मदद के लिए उनकी पत्नी ने गहनों के बाद घर का एक-एक बर्तन तक बेच दिया था।

बिखर गया परिवार

आम तौर पर बड़ी हस्तियों को लोग हमेशा महिमामंडित करके देखते हैं - न कोई कमी, न कोई ख़ामी.
ऊषा पाटनकर बहुत साफ़गोई से कहती हैं कि फाल्केजी के बेटे-बेटियों ने दादा साहेब का बड़प्पन तो देखा है पर उनकी कमियाँ भी देखी हैं.
ऊषा ने बताया, “जो बड़ी हस्तियाँ होती हैं उनके बच्चों के साथ कई बार ऐसा ही होता है. चाहे वो गांधीजी हों या तिलक. परिवार की ओर दादा साहेब का कोई ध्यान नहीं रह पाता था, सिनेमा ही सब कुछ था. मेरे सबसे छोटे मामा तो पढ़े लिखे भी नहीं थे, आर्थिक स्थिति ख़राब थी.यही वजह है कि फ़िल्मों के प्रति फाल्के परिवार के किसी भी सदस्य की रुचि नहीं हुई.”
ऊषा जी ने बातों-बातों में बताया कि दादा साहेब के बच्चे तो यहां तक कहते थे कि फ़िल्मों से उन्हें नफ़रत है क्योंकि उन्हें लगता था कि फ़िल्मों की वजह से उनकी ज़िंदगी संवर नहीं पाई. लेकिन ये बताते हुए ऊषा की आवाज़ में कटुता नहीं. वे कहती हैं कि आज की तारीख में तीसरी पीढ़ी के फाल्के परिवार की सरकार से कोई माँग नहीं है.
जब मैं दादा साहेब के बारे में बात कर रही थी तो सामने टीवी पर स्लमडॉग मिलियनेयर का गाना चल रहा था 'जय हो'. पूरी दुनिया में छा जाने वाली इस फ़िल्म ने जाने-अनजाने भारतीय न होते हुए भी भारतीय फ़िल्म इंडस्ड्री को विश्व के केंद्रबिंदु में ला दिया...अब लोग एआर रहमान को जानने लगे हैं, संगीत-नृत्य को फ़िल्म का हिस्सा होने पर वे आचंभित नहीं होते और हिंदी गाना जय हो एक नारा बन गया है.
जय हो के ये स्वर भले ही 21वीं सदी में गूँज रहे हैं लेकिन ये बात भुलाई नहीं जा सकती कि इस सफलता की नींव करीब एक सदी पहले दादा साहेब फाल्के ने डाली। साभार - बी बी सी

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